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कहानी - मौलवी साहेब

सलामपुर में हमारे किराये वाले मकान के दो माले नीचे ग्राउंड फ्लोर पर मौलवी साहेब रहते थे | अपने तीन बेटे, २ बहुएँ, २ पोते और आधे दर्ज़न बकरियों के साथ रहने वाले मौलवी साहेब को अगर किसी चीज़ का शौक़ था, तो सुनने का | कुछ भी सुन लेते थे, कुमार सानू के गाने, चौराहे के पनवारी की उधार में खाये धोखों के किस्से, सुनील के मैट्रिक के परीक्षा में चौथी बार फेल होने में उसके टीचरों की मिलीभगत, अपनी बकरियों के भूखे होने पर मिमियाने के आवाज़ें और वो सब कुछ जिसे हम आप सुनकर अनसुना कर दें | आँखें नहीं थी उनकी, शायद इसलिए जो बात हम चेहरे के भावों से पढ़ते हैं उन्हें वो आवाज़ की कम्पन से पढ़ने की कोशिश करते थे | इसलिए शायद बड़ी गंभीरता से हर एक शब्द सुनते थे और कुछ कम सुनने पर 'माफ़ कीजियेगा' कहकर दुबारा दुहराने को कहते थे | उनकी इन्ही आदतों ने उन्हें मोहल्ले का वो पादरी बना दिया था जिसके पास हम अपनी कारस्तानियां सुनाने जाते हैं | हालांकि यहाँ ज्यादातर लोग अपनी तरफदारी और दूसरों की शिकायतें सुनाने आते थे | मौलवी साहेब फिर भी सब सुनते थे | कोई फैसला या सलाह नहीं देते, बस मिजाज से सुनते थे | कई लोग म...