कहानी - मौलवी साहेब

सलामपुर में हमारे किराये वाले मकान के दो माले नीचे ग्राउंड फ्लोर पर मौलवी साहेब रहते थे | अपने तीन बेटे, २ बहुएँ, २ पोते और आधे दर्ज़न बकरियों के साथ रहने वाले मौलवी साहेब को अगर किसी चीज़ का शौक़ था, तो सुनने का |

कुछ भी सुन लेते थे, कुमार सानू के गाने, चौराहे के पनवारी की उधार में खाये धोखों के किस्से, सुनील के मैट्रिक के परीक्षा में चौथी बार फेल होने में उसके टीचरों की मिलीभगत, अपनी बकरियों के भूखे होने पर मिमियाने के आवाज़ें और वो सब कुछ जिसे हम आप सुनकर अनसुना कर दें |

आँखें नहीं थी उनकी, शायद इसलिए जो बात हम चेहरे के भावों से पढ़ते हैं उन्हें वो आवाज़ की कम्पन से पढ़ने की कोशिश करते थे | इसलिए शायद बड़ी गंभीरता से हर एक शब्द सुनते थे और कुछ कम सुनने पर 'माफ़ कीजियेगा' कहकर दुबारा दुहराने को कहते थे | उनकी इन्ही आदतों ने उन्हें मोहल्ले का वो पादरी बना दिया था जिसके पास हम अपनी कारस्तानियां सुनाने जाते हैं | हालांकि यहाँ ज्यादातर लोग अपनी तरफदारी और दूसरों की शिकायतें सुनाने आते थे | मौलवी साहेब फिर भी सब सुनते थे | कोई फैसला या सलाह नहीं देते, बस मिजाज से सुनते थे |

कई लोग मौलवी साहेब की इस भोलेपन का मज़ाक भी उड़ाते थे | कई बार तो वही लोग जो अकेले में मौलवी साहेब को अपने दुखड़े सुनाते थे, पनवारी की दूकान पे दूसरों के साथ लामबंद होकर उनकी खिंचाई करने में लग जाते थे| पिछले महीने की ही बात है जब किसी ने मौलवी साहेब पे व्यंग कसा की मौलवी साहेब उड़ती चिड़ियाँ के पंखों की फड़फड़ाहट सुनकर बता देते हैं की चिड़िया नर है या मादा | ये वही शक़्स थे जो चंद दिनों पहले ही अपने बीवी से हुए बड़े जोरदार झगडे के बाद मौलवी साहेब के पास बैठकर अपना दुखड़ा रो रहे थे और अपनी बीवी को तलाक दिए जाने की बात पे सुझाव मांग रहे थे| मौलवी साहेब लेकिन कभी पलटकर जवाब नहीं देते और मुझे उनकी इस सीधेपन से ख़ासा रोष रहता था |

मोहल्ले के कुछ बच्चों ने शरारत में उनके घर के बाहर स्कूल से चौक लाकर लिख दिया था 'यहाँ शिकायतें सुनी जाती हैं' | उसके बाद से ही मौलवी साहेब 'शिकायतों वाले डाक्टर' के नाम से मशहूर हो गए थे |

मौलवी साहेब ना ही ऐसा लिखा कुछ देख पाते थे ना ही उन्हें इन कही सुनी बातों से कोई फर्क पड़ता था | हालांकि उनकी पर्दा करने वाली दोनों बहुएं जो और किसी भी बात पर एक दुसरे को सीधी आंखों से देख नहीं सकती थी, अक्सर इस मसले पर एक होकर शिकायत करतीं थी की कैसे मौलवी साहेब अपनी पूर्वजों की इज़्ज़त मिटटी में मिला रहे हैं | बात अक्सर लेकिन शिकायत तक ही सीमित रह जाती थी क्यूंकि मौलवी साहेब को हर महीने की ७ तारीख को पेंशन की रकम मिलती थी जिससे घर का किराया और महीने का राशन आता था|

मैं पिछले हफ्ते चंद दिनों के लिए काम से बाहर गया हुआ था और कल देर रात लौटा | आज सुबह जब मेरी नींद खुली तो नीतू ने बताया की शनिवार सुबह को मौलवी साहेब का देहांत हो गया | मौलवी साहेब अभी चाँद दिनों पहले ही सत्तर बरस के हुए थे | मेरे मजाक करने पर की 'मौलवी साहेब सत्तरवें जन्मदिन पर क्या ख़ास कर रहे हैं', उन्होंने अपने संयम और लड़कपन के मिश्रण वाले अंदाज़ में कहा था 'कुमार सानू के गानों वाली एक नयी कैसेट आयी है, वही लेने की सोच रहा  हूँ' | एक पल की लिए सोचा था की वापसी में वो कैसेट मौलवी साहेब के लिए गिफ्ट के तौर पे लेता आऊंगा| सफर की थकान और रात घर पहुंचने की जल्दी में बात दिमाग से निकल गयी | आज ये बात याद भी आयी तो इस खबर से की उनका इंतकाल हो चूका है |

ज्ञात हुआ की जनाजे में काफी लोग गए थे| बकरियां शायद इस बात से बिलकुल बेखबर थी की उनके शाम के खाने का बंदोबस्त करने वाला नहीं रहा | मौलवी साहेब की बहुओं को हालांकि इसका एहसास था और शायद इसलिए वो काफी फुट फुट कर रो रहीं थी |

मैं थोड़े लेट से उठकर सीढ़ियों से नीचे उतरा तो सबसे पहले नज़र दीवार पर लिखे 'यहाँ शिकायतें सुनी जाती है' पर गयी| अब भी उतनी ही साबुत, मानो मौलवी साहेब कोने की पंसारी वाली दूकान से अभी वापस लौटने वाले हों और अभी कुछ देर में ही सुनने सुनाने का सिलसिला चालू होने वाला हो|

दिल में मौलवी साहेब को आखरी वक़्त में ना देख पाने का अपराधबोध था तो कदम अपने आप शमशान की तरफ बढ़ चले| शमशान घर से कुछ १० मिनट की दुरी पे था| आमतौर पे शायद स्कूटर उठा लेता, मगर मन में बहुत सारी बातें घूम रहीं थी तो सोचा टहलते हुए ही उन्हें सवालों और जवाबों के खानों में बाट लूँ | सवालों और जवाबों के 'मैच द फॉलोविंग' में समय का पता ही नहीं चला और मैं कब्रिस्तान के गेट पे खड़ा था |

किसी से पूछा नहीं था की मौलवी साहेब का कब्र कौन सा है मगर विश्वास था की ढूंढ लूंगा, खुद से ज्यादा मौलवी साहेब पर | आँखें दौड़ाई  तो देखा की एक कब्र की यादगारी वाली पत्थर पर कोई बड़ी संजीदगी से कुछ कुरेद रहा है | पास पंहुचा तो नक्काशी कर रहा कारीगर उठ खड़ा हुआ | देखा यादगारी पे मौलवी साहेब का नाम ' मौ. अल्फ़ाज़ हुसैन' बड़ी संजीदगी से लिखा है | नाम पढ़कर चेहरे पे एक मुस्कराहट छा गयी 'अलफ़ाज़' | भूल ही गया था की मौलवी साहेब का कोई और भी नाम है | नाम के नीचे कारीगर ने लिखा था 'यहाँ अब भी शिकायतें सुनी जाती हैं'|

ये देख मुझे बड़ी चिढ़ मची और मैंने झल्लाते हुए उस कारीगर से पूछा 'तुम्हे ये लिखने को किसने कहा' |

'मौलवी साहेब ने ' - उसका जवाब था |

मौलवी साहेब कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे, उन्होंने महीने भर पहले इस कारीगर को बुलाकर कुछ पैसे दिए और उनकी कब्र पर ये लिखने को कहा था| मन में एक ही पल में इतने किस्म की भावनाएँ उमड़ पड़ी की चेहरे पे एक हल्की सी मुस्कान छिड़ गयी | साथ ही साथ आंखों से एक बूँद आसूँ किसी शहीद हुए सिपाही की मज़ार पर सबल रहते हुए भी श्रद्धांजलि देने की चाह में टपक पड़ी|

मैं बस उस बच्चे की तरह जिसने अभी अभी कुछ अक्षरों को जोड़कर पढ़ना सीखा हो और सड़क किनारे चलते हर दूकान के नाम को पढ़ने की कोशिश करता है, मौलवी साहेब के नाम के नीचे उन शब्दों को न जाने कब तक दुहराता रहा 'यहाँ अब भी शिकायतें सुनी जाती हैं' ||

Comments

  1. Very well written, it evokes a lot of thought of how we are living our life, the meaning of listening to hear and not to reply..
    Brilliant like all other pieces that you have written

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  2. अत्यंत भावनात्मक !

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