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ग़ज़ल

कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया जो कुछ किया सरेआम किया नाम उठा तेरा महफ़िल में ताने दे सबने परेशां किया झाँका मेरे भीतर तूने जब मुझ पत्थर को इंसान किया दर्द उठा, तेरा जिक्र हुआ जब मीरे इश्क़ का क्या इनाम दिया मैं दिन भर हँसता फिरता हूँ तेरे इश्क़ ने यूँ बईमान किया जब नाम लिया तेरा सजदे में इल्जाम लगा, बदनाम किया थक कर हिज़्र की रातों से  साँसों को पूर्णविराम दिया

ग़ज़ल

हर पाप धोने को यूँ तो गंगा बहुत है  मसला यहाँ हर शख्श नंगा बहुत है कल सरेआम कसमें खायी वफादारी की सियासी दाव का उसको  तकाज़ा बहुत है मीरे इश्क़ को ना बना शिरी-फरहाद सा मुझे इश्क़ के आगे भी जीना बहुत है हर चिंगारी यहाँ बस्तियाँ जला जाती है  इस शहर में स्कूल कम, दरगाह बहुत है अँधेरे रास्तों में वो अक्सर बेबाक चलता है इश्क़ में गिरने उठने का तज़ुर्बा बहुत है बेऔलाद वो बेशुमार दौलत छोड़ गया ,  अकेली लाश, जनाज़े को कन्धा बहुत है सरहदों पे शहीद होना फ़क्र की बात है इश्क़ में कुर्बां होने का ओहदा बहुत है