ग़ज़ल
हर पाप धोने को यूँ तो गंगा बहुत है
मसला यहाँ हर शख्श नंगा बहुत है
कल सरेआम कसमें खायी वफादारी की
सियासी दाव का उसको तकाज़ा बहुत है
मीरे इश्क़ को ना बना शिरी-फरहाद सा
मुझे इश्क़ के आगे भी जीना बहुत है
हर चिंगारी यहाँ बस्तियाँ जला जाती है
इस शहर में स्कूल कम, दरगाह बहुत है
अँधेरे रास्तों में वो अक्सर बेबाक चलता है
इश्क़ में गिरने उठने का तज़ुर्बा बहुत है
बेऔलाद वो बेशुमार दौलत छोड़ गया,
अकेली लाश, जनाज़े को कन्धा बहुत है
अकेली लाश, जनाज़े को कन्धा बहुत है
सरहदों पे शहीद होना फ़क्र की बात है
इश्क़ में कुर्बां होने का ओहदा बहुत है
Comments
Post a Comment