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Showing posts from November, 2018

मई दिवस पर

खाल खींच के जूता सील लें कौनो नहीं कसूर चार डंडा मार दिए पर मजूरी दिए हुज़ूर थाली चाटे पेट भरा तब भोजन यों भरपूर लिया डकार बौ बौ कर शाबाशी दिए हुज़ूर  ख़ून खींच के खेत सींच दीह फसल हुआ भरपूर बोझा ढो ढो पीठ मुड़ गयी कहीन यही दस्तूर  बीमारी में काम करे को मलहम दिए हुज़ूर काट दिए टाँग जड़ से जब घाव बना नासूर घोड़ा बने छोटे मालिक खातिर बने गधा, लंगूर हमर बच्चन बड़े हुए जब उनका का कसूर टीबी का खाँसी फूटा जब घर से किये हमे दूर   देख गरीबी आँसू फूटा मुफत का ज़हर दिए हुज़ूर 

अधूरी नज़्म

इक नज़्म जो बीते ज़माने से लैपटोप की ड्राफ़्ट फ़ोल्डर में मुकम्मल होने की चाह में दबी रही उकता कर एक दिन ज़मीन पर बिखर पड़ी रोना धोना हुआ, बेवफाई के ताने गढ़े पांव पटका, बदन मडोड़ा हर्फ़, मिसरे, माने सब टूट कर बिखर पड़े हुडदंग मचता रहा मैं हताश तकता रहा फिर किसी शातिर नट की तरह उसने कलाबाजियाँ खायी और सबकुछ समेट खुबसूरत इक शक्ल में तनकर खड़ी हो गयी इतराते हुए कहा पढ़कर बताओ कैसी हूँ अपराधबोध से सना मैं अवाक उसे तकता रहा तभी कंधे पे इक छोटी थाप दी अब तो मुझे अपनी बटन वाली डायरी के पन्नों पे उतार लो मेरी उँगलियाँ स्वतः टेबल के कलमदान वाले कोने की ओर बढ़ चली |