हाँ मैं लिखता हूँ
हाँ मैं लिखता हूँ
लेखक नहीं, शायर नहीं
पर मैं लिखता हूँ
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टूटे फूटे शब्दों में
टूटी फूटी भाषा में
कोई पढ़ ले मेरी नज्मों
को
एक ऐसी बहकी आशा से
हाँ मैं लिखता हूँ
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अपनों पर लिखता हूँ
सपनों पर लिखता हूँ
शहर, गाँव, भावनाओं
पर लिखता हूँ
कुछ ना मिले तो
अपने लिखने पर लिखता
हूँ
पर मैं लिखता हूँ
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शब्दों को बड़ी मुश्किल
से
डिक्शनरी के पन्नों
से ढूंढकर,
उन्हें लाइनओं में
फिट बिठा
अपने लिखने के सपने
को
साकार करता हूँ
साकार करता हूँ
सच बोलूँ तो लिखने
की आड़ में
खिलवाड़ करता हूँ
पर मैं लिखता हूँ
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शायद इसलिए की
संवेदनाएँ हैं कुछ
कोई समझ जाता जिन्हें
बिन कहे मेरे,
तो इक सुकून होता
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कोई पढता नहीं, समझता
नहीं
फिर भी मैं लिखता हूँ
समझेगा कोई अगली बार
शायद इस आस में लिखता
हूँ
पर मैं लिखता हूँ
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लेखक नहीं, शायर नहीं
पर मैं लिखता हूँ
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