ग़ुमशुदा
चहलकदमी करते
थोड़ी दूर निकल आया हूँ
की लौट पाना यहाँ से
मुमकिन नहीं लगता |
शरारती भी,
जिंदगी की तर्ज़ पर
दोराहे में बँट जा रहे
अक्सर;
मैं भौहें सिकुड़ने नहीं
देता मगर
की भटका समझ
रास्ते भी उत्श्रृंखल हो जाते हैं
मुड़ जाते हैं कहीं से भी |
किसी से पता
पूछ भी नहीं सकता
मखौल न बन जाऊं
शहर का,
की अधेड़ उम्र वाला इंसान एक
रास्ता पूछता फिर रहा है
बच्चों की तरह
अंदेशा यह भी लगा है
की देर हो गयी गर
कोई गुमशुदगी की रपट
न लिखवा दे थाने में
की कहाँ इस उम्र में
पुलिसिया चक्कर काटूँगा मैं |
कोई पुरानी फोटो
पोस्टरों पे चिपका के
इनाम न डाल दे
ढूंढने वालों पे
की कहाँ इस उम्र में
ये शर्मिंदगी झेलूंगा मैं |
याद नहीं कबसे
इसी पसोपेश में
खड़ा हूँ यहाँ;
सोचता हूँ
चले चलता हूँ
अनजाना मोड़ कोई
दे पटकनी
खुद ही
पहुँचा देगा घर पे;
बहरहाल यह भी देख लूँ
तथाकथित अपनों में
आखिर कौन
ढूंढने
निकलता है मुझे ||
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