ग़ज़ल



मंदिर मस्जिद की आग में इंसान क्यों जलाते हैं |  
आओ अपने अपने दिल में पहले इक राम बसाते हैं |

मशालों की जरुरत नहीं तख्ता पलटने के लिए 
कुछ शब्द चुनते है, दुष्यंत सी कविता बनाते हैं |

नज़र घुमाओ जिधर, गर तुम्हे सब चोर दीखते हैं
आओ अपने अपने घर में इक आइना लगाते हैं

सच का फासला दो चार कदम बस और है
     आपने पी भी नहीं, फिर क्यों लड़खड़ाते हैं |    

तमन्ना हो तुम्हे जो फैज़ फ़राज़ सा नामवर होने की
आओ जरा उनकी काटों भरी जीवनी पढ़ जाते हैं |

क्रांतियों को मुकम्मल होने में गुजर जाते हैं बरसों  
इक काम करते हैं, आज एक पौधा लगाते हैं |   

परेशान जो तुम हालात देख सीरिया की, रोहिंग्या की
आओ अपने घरों के आगे एक प्याऊ बनाते हैं |

ये जो ज़िद पे हो बैठे दुनिया बदलने की
आओ घर लौट चलें, इक दिया जलाते हैं |

( नामवर - प्रतिष्ठित )


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