कहानी - सल्फास
बारिश आज भी झांसा दे गयी | मंगरु अपने पौने २ कट्ठे खेत की मेढ़ पर बैठ अलसाई नज़रों से कभी अपने सूखती फसलों को देखता तो कभी उँगलियों की टोपी बना आसमाँ की तरफ | अगस्त का महीना आ चुका था लेकिन बारिश की दूर दूर तक कोई खबर नहीं |
मंगरु ने नज़र घुमाई तो अखबार के फटे हुए एक टुकड़े पे गयी | बड़े साफ़ मोटे अक्षरों में लिखा था 'किसानों का 35 हज़ार करोड़ का क़र्ज़ माफ़' | मंगरु ने अखबार का टुकड़ा तह कर अपनी जेब में डाला और घर की तरफ दोपहर का खाना खाने निकल पड़ा | शाम ढले अपने पडोसी सुखीराम से उसके बेटे को दिल्ली में फ़ोन कराया | सुखीराम का बेटा दिल्ली में बैंक परीक्षा की तैयारी करता था और गांव के होशियारों में शुमार था | पता चला की क़र्ज़ माफ़ी केवल बैंक से लिए कर्ज़ों पर है | मंगरु ने तो महाजन से पैसे लिए थे, तीन टका महीने के ब्याज पर |
मंगरु को अपने तंग हालत से बहार आने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था | पिछले चंद दिनों में उसने ईंट भट्टी से लेकर मनरेगा तक हर जगह काम ढूंढने की कोशिश की, मगर कहीं काम ना बना | महाजन के सूध के पैसे भी बढ़े जा रहे थे | मंगरु इन्ही सोचों में पड़ा खेत की तरफ बढ़ने की सोच रहा था की महाजन अपने तीन महीने से बकाये सूध के लिए आ धमका - क्यूँ रे मंगरु, इस बार भी कोई बहाना तो नहीं तेरे पास | मंगरु ने दबी आवाज़ में इक लम्बी साँस छोड़ी और ज़मीन की तरफ देखने लगा - मानो मना रहा हो की ज़मीन फट जाये और उसे और महाजन दोनों को समा ले | महाजन ने बिना देर करते हुए कहा - अगर आज तूने पैसे नहीं दिए तो मैं तेरी बकरियाँ गिरवी ले जा रहा हूँ | मंगरु ने दबी उँगलियों से अपनी ज़ेब में पड़े साढ़े सात रुपये टटोला और बिना किसी विरोध के बकरियों के बाड़ की ओर चल पड़ा | बकरियों का पगहा खोल महाजन के हाथ में पकड़ाया और खेतों की ओर निकल लिया | महाजन ने पीछे से चिल्लाते हुए और दुसरे गांव वालों को सुनाते हुए कहा - इन बकरियों से तो सूध का पैसा भी न निकलेगा, मैं बाकी पैसे लेने अगले हफ्ते आऊंगा | मंगरु सुस्त कदमों से ज़मीन में सर गाड़े चलता रहा |
आज फिर मेढ़ पर बैठे मंगरु की नज़र अखबार के एक दुसरे टुकड़े पे पड़ी - 'पेरिस समझौता संपन्न - जलवायुं परिवर्तन रुकेगा' | बड़े कौतुहल से मंगरु ने अखबार उठाया और पढ़ने लगा | लेख में लिखा था की नए पर्यावरण समझौते से मौसम के बदलाव रुक जायेंगे और फसलों को फायदा पहुचेगा | मंगरु ने फिर से उँगलियों की टोपी बनायी और आसमान की तरफ ताकने लगा | मगर कल की कर्जमाफी वाले घटने के बाद से उसे अखबारों से इतनी घिन हो चुकी थी की उसने गोला बना अखबार को दूर झाड़ में फेक दिया | मंगरु को अब इस घुटन से बाहर आने का बस एक ही रास्ता दिख रहा था - आत्महत्या | मंगरु इस ख्याल के आते ही आत्महत्या के तरीकों का नाप तौल करने लगा | पहला ख्याल आया की सरकार का विरोध करते हुए कलेक्टर ऑफिस के सामने आत्मदाह कर ले | फिर लगा की अगर किसी ने कंबल डाल के बचा लिया तो उलटे लेने के देने पड़ जायेंगे और कहीं जेल न जाना पड़े | बहुत सोच विचार के बाद मंगरु ने एक सस्ता और घरेलु तरीका चुना - सल्फास की गोलियाँ | उसने ये भी तय किया की बीवी और दोनों बेटियों को भी वो गोलियाँ खिला देगा वरना उसके अकेले मरने के बाद उनकी और दुर्दशा हो जाएगी |
मंगरु ने शाम को ही इस काम को अंजाम देने का मन बनाया और घर की ओर चल पड़ा | घर पहुँचते ही धान की कोठी के ऊपर हाथ डाला तो सलफास की पुड़िया मिली, मगर उसमे सिर्फ तीन गोलियां दिखी | पुरे परिवार के लिए चार गोलियों की जरुरत थी | मंगरु ने इधर उधर नज़र दौड़ाई, लेट कर कोठी के नीचे भी देखा मगर और गोलियां ना दिखीं | मंगरु ये बुदबुदाते हुए की घर में कभी कोई चीज़ ढंग से नहीं रहती, सुखीराम के खेतों की तरफ गोलियां मांगने बढ़ चला | सुखीराम के साथ उसकी पत्नी मालती और सोमक कुम्हार भी थे, मंगरु ने बड़े इत्तेफ़ाक़ वाले अंदाज़ में हाल चाल पूछा | फिर झिझकते हुए कहा - सुखीराम, तुम्हारे पास सल्फास की गोली होगी क्या | सुखीराम ने धीमी आवाज़ में कहा - 'होगी, पर पता नहीं कहाँ रखी है | लेकिन तुम्हे गोलियां क्यों चाहिए, अभी तो धान भी ना कटे हैं' | ये तर्क सुनते ही सुखीराम की बीवी और सोमक कुम्हार भी मंगरु को घूरने लगे | मंगरु ने हड़बड़ाते हुए कहा - कुछ जरुरत है लेकिन अभी चलता हूँ, बाद में ले लूंगा | ये कहते हुए वो लड़खड़ाते तेज कदमों से वहां से निकल लिया | मंगरु समझ गया की किसी से गोली माँगना शक पैदा कर सकती है, इसलिए गोली खरीदनी ही पड़ेगी |
गोली खरीदने के लिए दस रुपये की जरुरत थी और मंगरु के जेब में अब भी सिर्फ साढ़े सात रुपये थे | मंगरु ने खुद को हिम्मत बँधायी और एक लम्बी सांस खींचते हुए महाजन के घर की तरफ बढ़ चला | महाजन ने उसे ऊपर से नीचे तक घुरा लेकिन ढाई रुपये रोज़ाना के ब्याज पे ढाई रुपये क़र्ज़ देने को तैयार हो गया | मंगरु भी मन ही मन महाजन पे मुस्कुराया - 'अब ब्याज लेने तुझे ऊपर आना पड़ेगा' |
दस रुपये अपनी मुट्ठी में भींचे मंगरु बाज़ार की ओर बढ़ चला | बाज़ार कुछ तीन कोस की दूरी पे था और भूख भी उतनी ही लगी थी मगर मंगरु खुद को दिलासा देता रहा - बस कुछ घंटो की बात है, फिर तो चैन से मरना ही है | इन्हीं सोचो से घिरा जब वो दूकान पे पंहुचा तो पता चला की सल्फास की गोली जमाखोरी के कारण मिल नहीं रही | मंगरु ने गिनती के चारो दूकान छान मारे लेकिन कहीं भी गोली ना मिली | इसी बीच दूकान से एक लड़का बाहर आकर मंगरु के कान में कहता है - एक गोली २५ की पड़ेगी, चाहिए? मंगरु ने उसे अपने हाथ में पकडे गीले १० का नोट दिखाया तो वो धत कहकर उल्टा लौट जाता है |
मंगरु अब असमंजस में पड़ा घर की तरफ लौट चला | गांव छूते ही उसे सरपंच बाबू मिल गए | मंगरु ने उन्हें सल्फास के जमाखोरी वाला दुखड़ा सुना दिया | सरपंच बाबू ने उसे बताया की जमाखोरी की वजह से ही सरकार ने पंचायत भवन पे गोलियों की मुफ्त वितरण का प्रोग्राम रखा है | वो वहां से गोलियां ले सकता है | मंगरु ने सरपंच बाबू के हाथ अपने हाथों के बीच शुक्रिया करने के अंदाज़ में पकड़ लिया मगर कुछ बोल न सका | रात में मंगरु आंगन में खाट पर लेटे आसमान की ओर तकता रहा | वो आखरी बार रात और इस आसमान को देख रहा था | कल मौत के बाद शायद उन्ही तारों के पीछे बसी किसी दुनिया में जाना हो | वहां ये क़र्ज़ और फसलें सूख जाने का झमेला तो नहीं ही होगा - मंगरु ने खुद को दिलासा दिया |
सुबह मंगरु की नींद तड़के खुल गयी | ऑंगन में टहलता वो बस दिन निकलने का इंतज़ार करता रहा | धुप थोड़ी ऊपर आते ही वो अपना गमछा उठा पंचायत भवन की तरफ भागा | 'शाम के खाने के लिए बनिए की दूकान से मसालों वाली पुड़िया लेते आना' - मंगरु की बीवी ने पीछे से चिल्लाते हुए कहा |
मंगरु के कदम पंचायत भवन की तरफ बढ़ते हुए तेज होते गए | पहुंच कर देखा तो लम्बी लाइन लगी थी | मंगरु मन ही मन में खुद को कोसने लगा की उसने पहुंचने में देर कर दी | फिर भी वो लाइन में खड़ा हो अपनी बारी का इंतजार करने लगा | आस पास खड़े लोगों से पुष्टि भी कर ली की गोलियां बट रही है |
नाम ? मंगरु की बारी आने पर टेबल के पीछे बैठे सरकारी बाबू ने पूछा | मंगरु राम, सरकार - मंगरु ने भी हाथ जोड़े पीठ झुकाये कहा | वहाँ पैसे जमा करा के गोली ले लो - सरकारी बाबू ने चार हाथ की दूरी पे बैठे मुंशी को दिखाकर कहा | मगर यहाँ तो मुफ्त........, मंगरु ने इतना कहा की बाबू ने चश्मे के ऊपर से उसे घूरते हुए देखा | मंगरु इशारा समझ गया और मुंशी के बक्से के पास पहुंच गया | चलो दस रुपये निकालो - मुंशी ने रजिस्टर से सर उठाये बिना कहा | मंगरु को रेडियो पे मोदी जी की पिछले हफ्ते आयी मन की बात याद आयी जिसमे मोदी जी ने कहीं भी हो रहे भ्रष्टाचार को उजागर करने वाली अपील की थी | जल्दी करो भाई - मुंशी की फिर आवाज़ आयी | मंगरु ने अपने पॉकेट में हाथ डाला और १० का नोट मुंशी को थमा दिया | मुंशी ने भी एक गोली मंगरु के हाथ में पकड़ाई और आगे बढ़ने का इशारा किया |
घर लौटते तक मंगरु को पूरी दुनिया से चिढ़ मच चुकी थी | उसे अब सरकार, गाँव वालों या किसी से भी कोई उम्मीद न थी | 'अब एक पल भी जिन्दा रह के गँवाना ठीक नहीं' | उसने तय किया को शाम होने तक का इंतजार नहीं करेगा और घर पहुंचते ही पुरे परिवार के साथ जान दे देगा |
तेज कदमों से पहुंच मंगरु ने घर की चौखट पे जैसे ही कदम रखा तो मरा हुआ एक चूहा दिखा | मंगरु ने एक पल के लिए उसे लात मारकर किनारे कर दिया | दुसरे ही पल मगर उसे कुछ एहसास हुआ | वो हाँफते हुए धान की कोठी की ओर भागा और ऊपर जैसे ही हाथ लगाया तो देखा तीनों गोलियॉं गायब | उसे समझते देर न लगी |
मंगरु की एक पल में ही मानो पूरी दुनिया उजड़ गयी हो | मंगरु वहीं ज़मीन पर बैठ गया और मरे हुए चूहे को देख जोर जोर से रोने लगा | रसोई से मंगरु की बीवी दौड़ते हुए आयी | मंगरु की दोनों बेटियां जो आँगन में कितकित खेल रही थी, खेल रोक अपने पिता को देखने लगी | किसी को समझ नहीं आया की आखिर हुआ क्या | मंगरु उस चूहे की तरफ देखता हुआ बिलखकर रोता रहा - मानो सुकून से लेटे उस चूहे की खुशकिस्मती ने अंदर तक झकझोर दिया हो |
मंगरु की बीवी बिना मसला जाने भी उसे चुप करने उसके बगल में बैठी ही थी की बाहर दरवाज़े पे दस्तक हुई - अरे मंगरु है ? बोलना महाजन बाबू आये हैं |
मंगरु और जोर जोर से चिंघाड़ता हुआ रोने लगा |
This poignant story makes me think, of what captures your mind as the author. While we all know that this is something prevalent in the society we still choose to turn away as it is painful to give it too much thought. Your attention to detail to piece out the reverie of a man and a family with no hope is a portrayal of your empathy. I hope you never let this fire out in your heart...
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