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ग़ुमशुदा

चहलकदमी करते थोड़ी दूर निकल आया हूँ की लौट पाना यहाँ से मुमकिन नहीं लगता | रास्ते सर्पिल हैं थोड़े शरारती भी, जिंदगी की तर्ज़ पर दोराहे में बँट जा रहे अक्सर; मैं भौहें सिकुड़ने नहीं देता मगर की भटका समझ रास्ते भी उत्श्रृंखल हो जाते हैं मुड़ जाते हैं कहीं से भी | किसी से पता पूछ भी नहीं सकता मखौल न बन जाऊं शहर का, की अधेड़ उम्र वाला इंसान एक रास्ता पूछता फिर रहा है बच्चों की तरह अंदेशा यह भी लगा है की देर हो गयी गर कोई गुमशुदगी की रपट न लिखवा दे थाने में की कहाँ इस उम्र में पुलिसिया चक्कर काटूँगा मैं | कोई पुरानी फोटो पोस्टरों पे चिपका के इनाम न डाल दे ढूंढने वालों पे की कहाँ इस उम्र में ये शर्मिंदगी झेलूंगा मैं | याद नहीं कबसे इसी पसोपेश में खड़ा हूँ यहाँ; सोचता हूँ चले चलता हूँ अनजाना मोड़ कोई दे पटकनी खुद ही पहुँचा देगा घर पे; बहरहाल यह भी देख लूँ तथाकथित अपनों में आखिर कौन ढूंढने निकलता है मुझे ||

तुम आओगी न!

( नैनों-नक्श = facial features, नर्गिसी = resembling Daffodil flower) याद है तुम्हें कुछ क्यारियाँ खींची थी तुमने बागीचे में गुलमोहर के पेड़ तले तुम्हारे नैनों-नक्श और खुश्बू वाले नर्गिसी फूल उग आये हैं उनमें पूछते हैं कई दफ़ा तुम्हारे बारे में जिक्र सुनते हैं, बड़े मिजाज से किसी शायर की ग़ज़लों की तरह फरमाईशें करते हैं तुम्हें बुलाने की ज़िद करते खिड़कियों पे चढ़ आते हैं  कई बार हवा के झोकों से शह लेकर, फुसफुसा जाते हैं "तुम भी बुलाओ न" समझा पाता नहीं, रिश्ता वो नहीं अब की तुम्हें पुकार सकूँ तसल्ली होती है पर उन्हें भी, मुझे भी गर मैं तुम्हें पुकारता हूँ क्या आओगी तुम जो कभी वक़्त मिले की ये फूल भी हठ कर बैठें हैं तुम्हारे नैनों-नक्श और खुश्बू वाले फूल उग आयें हैं तुम्हारी कब्र पे इस बार तुम आओगी न!

उद्विग्न मन

(उद्विग्न = anxious , सोखता = to absorb , जोखता = to weigh , अस्वीकार्य = unacceptable, कृत्य =  act,  यत्न = effort) उद्विग्न मन तेरा भी (उद्विग्न - उद्विग्न मन मेरा भी कुछ बात पे हैरान है ये किसी बात से परेशान है ये कुछ सोचता, फिर सोखता उस बात को फिर जोखता जो तौल पाता है उसे उस बात की हैवानियत से शर्मसार मन तेरा भी, शर्मसार मन मेरा भी | किसी बात से चिंतित है ये और तनिक भयभीत भी क्या करूँ ये सोचता कुछ कर सकूँ,मन कचोटता जो बेबसी की आड़ में खूबसूरत इस संसार में अस्वीकार्य इस कृत्य से मैं किनारा कर गया उस बेबसी के भार से तार तार मन तेरा भी, तार तार मन मेरा भी | कह रहा हठ बार बार हो जायेगा, कर प्रहार जो किया मन से प्रयास तो कैसी जीत, काहे का हार दहाड़ती, उन चीखों की लाज़ रख, बस एक बार जो लाज़ रख पाता कभी उस बात की इंसानियत से, होता गौरवान्वित सौ बार मन तेरा भी, सौ बार मन मेरा भी | कौन कहता है नहीं संघर्ष की कोई जीत है चल उठ खड़ा हो, देख तो झूठ खुद भयभीत है जो अब नहीं तो फिर कभी हो पायेगा ये यत्न भी जो एक तिनका हिल गया हिल जायेगा कण-कण सभी...