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Showing posts from 2017

ग़ज़ल

मंदिर मस्जिद की आग में इंसान  क्यों जलाते हैं |   आओ अपने अपने दिल में पहले इक राम बसाते हैं | मशालों की जरुरत नहीं तख्ता पलटने के लिए  कुछ शब्द चुनते है, दुष्यंत सी कविता बनाते हैं | नज़र घुमाओ जिधर, गर तुम्हे सब चोर दीखते हैं आओ अपने अपने घर में इक आइना लगाते हैं सच का फासला दो  चार कदम बस   और है      आपने पी भी नहीं, फिर क्यों लड़खड़ाते हैं |        तमन्ना हो तुम्हे जो फैज़ फ़राज़ सा नामवर होने की आओ जरा   उनकी काटों भरी जीवनी पढ़ जाते हैं | क्रांतियों को मुकम्मल होने में गुजर जाते हैं बरसों   इक काम करते हैं, आज एक पौधा लगाते हैं |      परेशान जो तुम हालात देख सीरिया की, रोहिंग्या की आओ अपने घरों के आगे एक प्याऊ बनाते हैं | ये जो ज़िद पे हो बैठे दुनिया बदलने की आओ घर लौट चलें, इक दिया जलाते हैं | ( नामवर - प्रतिष्ठित )

कहानी - मौलवी साहेब

सलामपुर में हमारे किराये वाले मकान के दो माले नीचे ग्राउंड फ्लोर पर मौलवी साहेब रहते थे | अपने तीन बेटे, २ बहुएँ, २ पोते और आधे दर्ज़न बकरियों के साथ रहने वाले मौलवी साहेब को अगर किसी चीज़ का शौक़ था, तो सुनने का | कुछ भी सुन लेते थे, कुमार सानू के गाने, चौराहे के पनवारी की उधार में खाये धोखों के किस्से, सुनील के मैट्रिक के परीक्षा में चौथी बार फेल होने में उसके टीचरों की मिलीभगत, अपनी बकरियों के भूखे होने पर मिमियाने के आवाज़ें और वो सब कुछ जिसे हम आप सुनकर अनसुना कर दें | आँखें नहीं थी उनकी, शायद इसलिए जो बात हम चेहरे के भावों से पढ़ते हैं उन्हें वो आवाज़ की कम्पन से पढ़ने की कोशिश करते थे | इसलिए शायद बड़ी गंभीरता से हर एक शब्द सुनते थे और कुछ कम सुनने पर 'माफ़ कीजियेगा' कहकर दुबारा दुहराने को कहते थे | उनकी इन्ही आदतों ने उन्हें मोहल्ले का वो पादरी बना दिया था जिसके पास हम अपनी कारस्तानियां सुनाने जाते हैं | हालांकि यहाँ ज्यादातर लोग अपनी तरफदारी और दूसरों की शिकायतें सुनाने आते थे | मौलवी साहेब फिर भी सब सुनते थे | कोई फैसला या सलाह नहीं देते, बस मिजाज से सुनते थे | कई लोग म...

तहज़ीब

तहज़ीब, तमीज मर्यादा, दहलीज़ और अपनी पेचीदगी में उलझे तमाम वो लफ्ज़ जिससे किसी खानदान की इज़्ज़त बयां होती है औरतों के हवाले गुड्डे गुड्डियाँ, काजल, मेहँदी, आँचल और अपनी नज़ाकत में लिपटे तमाम वो सिफ़त ( सिफ़त - स्वभाव ) जिससे वो नाज़ुक दिखे अबला और भावुक दिखे इस्तेमाल होंगी केवल औरतों के लिए स्कूल, किताब तालीम, खिताब और काबिल दिखने की कोशिश में उठे तमाम वो कदम जिनपे उनका अधिकार नहीं ऐसे सारे क़दमों को जिससे उनका सरोकार नहीं उठने से पहले रोकना होगा औरतों को   ख्वाहिश, खुदगर्ज़ी अभिलाषा, मनमर्ज़ी और आज़ादी की तमन्ना में घुले तमाम वो ख्याल उठ सकती घर की आबरू पे जिनसे कोई सवाल       ऐसे अश्लील ख्यालों से दूर रहना फ़र्ज़ होगा औरतों का रस्मो-रिवाज़ शर्मो-हया, घूँघट, हिज़ाब मांगे जाने पे हर बात का वाजिब जवाब और हर वो नियम जिनका आयतों में जिक्र है ( आयतें - कुरान की पंक्तियाँ ) गर आबरू की फ़िक्र है अमल करना होगा औरतों को ऐवज़ में इन...

शिकायत

शिकायत की थी मैंने चंद दिनों पहले तुम्हारे ज़ुबान से फिसले उर्दू की इक लफ्ज़ पर की जिसमे तुमने ज़ुबान की जगह जुबान कहा था | शिकायत की थी मैंने नुक्तों की अहमियत नहीं तुम्हे ( नुक्ता - उर्दू शब्दों में नीचे चिन्हित बिंदु ) नकार देती हो अक्सर, यों रिश्तों की बारीकियों को बदल जाते हैं माने शब्दों के तुम्हारी इस नादानी से शिकायत यूँ भी थी ज़ुबाँ साफ़ नहीं तुम्हारी हर्फ़ फूटते नहीं वाज़िब ( हर्फ़ - अक्षर) गरारे करो जो गर ( गरारा - गलगला ) सुबहे गुनगुने पानी से, तलफ़्फ़ुज़ निखर आए शायद ( तलफ़्फ़ुज़ - उच्चारण ) पलट कर बड़ी अदब से फ़रमाया था तुमने ज़ुबाँ साफ़ नहीं ना सही शब्द चुभते नहीं मुसल्सल ( मुसल्सल - अक्सर/हमेशा) बिन माँगे, बेमतलब मेरे तल्ख़ मशवरों की तरह ( तल्ख़ - कड़वा ) इक कसक सी दबी थी जेहन में तबसे तुम्हारे ग़रारों ने आज याद दिलाया है, बहुत सोच कर तुम्हारी बात पर मैंने शब्दों से ज्यादा उनके मानो पे तवज्जो देने का मन बनाया है |

इश्क़: लाज़मी है

( आयतें - Lines which are sacrosanct/from Quran, मिसरे - Lines, सफहा - Page) खुल जाऊँ मैं या खुल जाए तू कभी पढ़ ले आयतें कुरेदी थी जो हमने हर कोने पे बदन के उँगलियों के फेर से; समझ के माने आज़ाद हो जाएँ फिर गलतफहमियों के बोझ से | वो मिसरे की जिनमें मेरे ख़्वाबों की लंबी लिस्ट समेट ली थी तुमने अपनी आँखों की पुतलियों पर, सुपुर्द कर देना मेरे; ऐवज़ में उनके मैं वो आयतें दे दूंगा तुम्हे जिनमें ना बिछड़ने की कसमें खायी थी तुमने | लिख बैठेंगे कुछ नया भी गर नाराज़ ना हुई तुम फिर से, की कोरे सफहों की मायूसी से बददुआएँ लगती है, सुना है | दर्द लाज़मी है इश्क़ में, बिछड़ना भी की कहाँ मुट्ठियाँ भिंचने से रेत रुकी है कभी; लाज़मी नहीं गर कुछ इश्क़ में तो बिछड़े आशिक़ों का दोबारा मिले बिना ही मर जाना |