रास्ते बदले हैं कभी?
रास्ते बदले हैं कभी?
इस डर से
की तंग इक गली में
चंद लोग रहते हैं
जो राह गुजरते
पूछ बैठते हैं
हाल चाल अक्सर |
वक़्त वही, अंदाज़ वही
चेहरा वही, अलफ़ाज़ वही,
फ़िक्र्मन्दगी की आड़ में
सवालों के बाण तैयार,
हर सवाल यक़्साँ फरेबी (यक़्साँ - एक जैसे)
हर सवाल इक बलात्कार |
कभी किसी मसले का हल
होता नहीं देखा इस संवाद से
ना तल्खियां मिटती मोहल्ले की
ना जड़ मिटते फसाद के |
मंसूबे जो समझ नहीं पाता
सवालों में छुपे सवाल का
नामुनासिब कुछ कह जाता हूँ
मच जाता अक्सर बवाल सा |
वहीं दूसरी इक गली में
जो और भी संकरी है
मोहल्ले के मनुवादी जिसे
अछूतों की टोली बता
दुत्कार देते हैं |
यों तो क्रांतियों वाला
ज़ज्बा नहीं,
मुँह चिढ़ाने के इरादे सही
इस डर से
की तंग इक गली में
चंद लोग रहते हैं
जो राह गुजरते
पूछ बैठते हैं
हाल चाल अक्सर |
वक़्त वही, अंदाज़ वही
चेहरा वही, अलफ़ाज़ वही,
फ़िक्र्मन्दगी की आड़ में
सवालों के बाण तैयार,
हर सवाल यक़्साँ फरेबी (यक़्साँ - एक जैसे)
हर सवाल इक बलात्कार |
कभी किसी मसले का हल
होता नहीं देखा इस संवाद से
ना तल्खियां मिटती मोहल्ले की
ना जड़ मिटते फसाद के |
मंसूबे जो समझ नहीं पाता
सवालों में छुपे सवाल का
नामुनासिब कुछ कह जाता हूँ
मच जाता अक्सर बवाल सा |
वहीं दूसरी इक गली में
जो और भी संकरी है
मोहल्ले के मनुवादी जिसे
अछूतों की टोली बता
दुत्कार देते हैं |
यों तो क्रांतियों वाला
ज़ज्बा नहीं,
मुँह चिढ़ाने के इरादे सही
उसी गली से गुजर हम भी
अपने प्रतिष्ठित मोहल्ले को
ललकार लेते हैं |
अधमरे एक नाले के दोनों तरफ
आधे कमरे, छह बसैरों वाली
अनगिनत घरें बिछीं हैं
बेधुले कपड़ो की गठरी सी,
कुछ खाट धुप सेकते
इंसानो के साथ बेसुध पड़े
सड़क के नाम पर
धुरमुसा रास्ता इक पत्थरी सी
हिदायतें ना गुजरने की
ललकार लेते हैं |
अधमरे एक नाले के दोनों तरफ
आधे कमरे, छह बसैरों वाली
अनगिनत घरें बिछीं हैं
बेधुले कपड़ो की गठरी सी,
कुछ खाट धुप सेकते
इंसानो के साथ बेसुध पड़े
सड़क के नाम पर
धुरमुसा रास्ता इक पत्थरी सी
हिदायतें ना गुजरने की
ताक पे रख, गुजरता हूँ जब भी
लोग दिखते हैं बहुतेरे पर,
कोई टोका नहीं करता |
ऐसा नहीं की दर्द सना नहीं
नंगे महीन उन बदनों में
आदतन छुपा दर्द कोई
साझा नहीं करता |
दंभ और अहं की जगह
ले ली है शायद
रोटी की कवायद ने
कोई झगड़े में खाने की थाली
फेंका नहीं करता;
शिकायतें लाज़मी हैं
चंद रंजिशें भी, गर
एक दूजे की लाशों पे कोई
रोटी सेका नहीं करता |
गुजरने लगा हूँ
संसारिकता की सारी
उसूलों को ताक पे रख
संकरी उस गली से आजकल |
आस जो कम थी
मिलनसार बनने की पहले
तमन्ना भी दिनों-दिन दफन रही
हर एक नए सवाल के साथ ||
कोई टोका नहीं करता |
ऐसा नहीं की दर्द सना नहीं
नंगे महीन उन बदनों में
आदतन छुपा दर्द कोई
साझा नहीं करता |
दंभ और अहं की जगह
ले ली है शायद
रोटी की कवायद ने
कोई झगड़े में खाने की थाली
फेंका नहीं करता;
शिकायतें लाज़मी हैं
चंद रंजिशें भी, गर
एक दूजे की लाशों पे कोई
रोटी सेका नहीं करता |
गुजरने लगा हूँ
संसारिकता की सारी
उसूलों को ताक पे रख
संकरी उस गली से आजकल |
आस जो कम थी
मिलनसार बनने की पहले
तमन्ना भी दिनों-दिन दफन रही
हर एक नए सवाल के साथ ||
Brilliant, so simple yet so deep !!
ReplyDeleteI am truly a fan of how you write