इश्क़: प्रैक्टिकल वाला

अगस्त का पहला इतवार
दोपहर के साढ़े तीन बजे
काले घने बादलों में
दिन कहीं ढक सा गया है
सड़कें बारिश में वीरान
सबकुछ मानो थम सा गया है

घर की पोर्च पर मैं
चाय की चुस्कियों के साथ
अमृता प्रीतम की आत्मकथा
के घूँट लगाता
किताब के ४४वें पन्ने पर
पहुँचता हूँ
अमृता साहिर के लिए कहती हैं
"तेरा मिलना ऐसा होता है जैसे
कोई हथेली पर एक वक़्त की रोटी रख दे"

इस मार्मिक प्रेम कथा से प्रभावित
भीगती वीरान सड़कों पर
बारिश में काल्पनिक
फिल्म का सेट लगा देता हूँ
मेरे कुशल निर्देशन में
साहिर अमृता को मिलाने की
कवायद शुरू होती है
किसी सपने की तरह
साहिर भीगते हुए धीमे क़दमों से
अमृता की तरफ बढ़ते हैं
एकटक उन्हें देखते हुए
दोनों हाथ अपने हाथों में थामकर
कुछ कहने को होंठ फड़फड़ाते हैं

इक अनचाही आवाज़ से लेकिन
सपना टूट जाता है
बेमन से फ़ोन पर नज़रें फेरता हूँ
बॉस का व्हाट्सएप्प:
"कैन यू रीच ऑफिस इन हाफ ऍन ऑवर"
आशिक़ मन झुंझलाता है
ये वक़्त नहीं इन बेतुकी बातों का
अभी इतिहास बन रहा है
दो प्रेमी जो दशकों से न मिल पाए,
एक होने जा रहे हैं
कोशिश करता हूँ फ़ोन रखकर
फिर से उस सीन को दुहराने की
लेकिन मन भटक चूका है
बारिश से कोसों दूर
समझदारी और दुनियादारी
में भीग चूका है

बुकमार्क और
चाय की प्याली
अपने नियत जगह पे टिका
ऑफिस जाने की कवायद
में जुड़ जाता हूँ
खुद को दिलासा देते हुए
ये नजीब जंग    ( नजीब - नेक )
शाम को फिर से छिड़ेगी
हालाँकि मन का समझदार कोना
जान चूका है
किताब के ये पन्ने अब
हफ़्तों नहीं खुलेंगे
अब साहिर और अमृता
कभी नहीं मिलेंगे ||

- मृत्युंजय

Comments

  1. Kahaani hi likna tha toh kudh ki kalpana hi kaafi hai...haqeeqat mein kalpana ko doondne ki kaahe ko haqleef kiya??zulmi hi ho, kuch alag nahi aata hai shaayad!

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

AMUSINGLY TRUE

इक लेखक का जन्म

ज़िंदा