स्वेटर

कल बारिश हुई
अक्टूबर की पहली

सर्द हवाओं की
पहली झोंक में
जब
सिहरता देख मुझे
उँगलियाँ तुम्हारी
ऊन के गोलों पे
तेज हो जाती थी

चाय के प्यालों
की खनक
दूर से सुनकर
तलब तुम्हारे
गर्माहट की
मीरे सीने में
भर आती थी

बादलों में टंगे सूरज
की किरणें
हिचकिचाते हुए
नंगे ठूठ पेड़ों
से गुजरकर
ख़ुश्क हमारे बदन को
सहला जाती थी

कल फिर वही बारिश थी
पतझड़ की पहली

सिहरता रहा मैं
तीसरे पहर रात के
कुछ हरारत में ( हरारत - हल्का बुखार )
कुछ बनावटी,
आँखें मूँद
इंतजार में
लिपट जाने को
गर्म साँसों
में तुम्हारे

पड़े हैं गोले
उलझे रिश्तों के,
झाँकते
बंद अलमीरों से
स्वेटर जो बुन दो तुम
फिर इक बार
ओढ़ लूँ उसे
सो जाऊँ मैं |

Comments

  1. Sweater bunke phir gharmi aa gayi tho ,phir se fhenk dhogge kya? mausam toh hamesha badlta hai...

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