अधूरी नज़्म

इक नज़्म
जो बीते ज़माने से लैपटोप
की ड्राफ़्ट फ़ोल्डर में
मुकम्मल होने की चाह में दबी रही
उकता कर एक दिन
ज़मीन पर बिखर पड़ी
रोना धोना हुआ,
बेवफाई के ताने गढ़े
पांव पटका, बदन मडोड़ा
हर्फ़, मिसरे, माने
सब टूट कर बिखर पड़े
हुडदंग मचता रहा
मैं हताश तकता रहा
फिर किसी शातिर नट की तरह उसने
कलाबाजियाँ खायी और
सबकुछ समेट
खुबसूरत इक शक्ल में
तनकर खड़ी हो गयी
इतराते हुए कहा
पढ़कर बताओ
कैसी हूँ
अपराधबोध से सना
मैं अवाक उसे तकता रहा
तभी कंधे पे इक छोटी थाप दी
अब तो मुझे
अपनी बटन वाली डायरी के
पन्नों पे उतार लो
मेरी उँगलियाँ स्वतः
टेबल के कलमदान वाले कोने
की ओर बढ़ चली |

Comments

  1. Nazam abhi bhi hai aduri..
    Hai kya kalamdaan mein syaahi?,
    Yeh phir se chod doon iilahi?
    Aur hone doon tabaahi?

    ReplyDelete

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