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इक तमन्ना

इक तमन्ना की तुम्हें किसी शायरी में गढ़ बो दूँ अपने पसंदीदा फूलदान में जब नज़्म बनकर उभरो कसीदें पढ़ सकूँ अपनी क़ाबिलियत के |

इक लेखक का जन्म

कभी यूँ हुआ की अपनी हीं इक नज़्म पढ़कर लगा कोई इतना ख़ूबसूरत कैसे लिख सकता है गर हुआ तो मुबारक हो है इक लेखक ने जन्म लिया |

फासला

मेरे और तुम्हारे घर के बीच तीन मील, छः सिग्नल, दर्जन भर स्पीड ब्रेकर और इक्कीस मिनट का फ़ासला है मेरे तुम्हारे बीच सदियों का

ज़िंदा

खबरें बताती हैं इस देश में अबतक कोरोना से महज़ 448 जानें गयी हैं आँकड़ों के इस रेस में हम अमरीका, ब्रिटेन सरीखे देशों से बहुत आगे हैं टीवी पर तभी दिखता है सूरत से घर को पैदल चला इक मज़दूर बेटी को काँधे पे चढ़ाए मुस्कुराते हुए कहता है ‘अभी तीन दिन और लगेंगे’ दिखती है नवजात कि लाश सीने से लगाए गाँव से 100 मील दूर पटना की ओर बिलखती, भागती इक औरत दिखते हैं पत्थरों से लहूलुहान डॉक्टर और पुलिस वाले दिखते हैं माथे पर हाथ धरे ज़िंदगी और नरक का फ़र्क़ कब का भूल चुके लाखों किसान जो कभी टीवी पर नहीं आते 130 करोड़ के देश में महज़ 448 मौतें न्यूज़ ऐंकर आँठवी बार चीखता है डरने की कोई बात नहीं बड़ी देर तक सोचता हूँ वैसे भी इस मुल्क में ज़िंदा कौन बचा है

बेसब्री

वो बेसब्री जिसमे क़मीज़ के कोने से लटके धागे को खींचकर तोड़ने में अक्सर पूरी सिलाई उधेड़ डालते हो ज़रूरत नहीं उस बेसब्री की अभी इस दुनिया को ज़िंदगी को रफ़्फ़ु करने वाले डाक्टर त्योहार के दर्ज़ियों की तर्ज़ पर नए ऑर्डर लेना बंद कर चुके हैं ।

मई दिवस पर

खाल खींच के जूता सील लें कौनो नहीं कसूर चार डंडा मार दिए पर मजूरी दिए हुज़ूर थाली चाटे पेट भरा तब भोजन यों भरपूर लिया डकार बौ बौ कर शाबाशी दिए हुज़ूर  ख़ून खींच के खेत सींच दीह फसल हुआ भरपूर बोझा ढो ढो पीठ मुड़ गयी कहीन यही दस्तूर  बीमारी में काम करे को मलहम दिए हुज़ूर काट दिए टाँग जड़ से जब घाव बना नासूर घोड़ा बने छोटे मालिक खातिर बने गधा, लंगूर हमर बच्चन बड़े हुए जब उनका का कसूर टीबी का खाँसी फूटा जब घर से किये हमे दूर   देख गरीबी आँसू फूटा मुफत का ज़हर दिए हुज़ूर 

अधूरी नज़्म

इक नज़्म जो बीते ज़माने से लैपटोप की ड्राफ़्ट फ़ोल्डर में मुकम्मल होने की चाह में दबी रही उकता कर एक दिन ज़मीन पर बिखर पड़ी रोना धोना हुआ, बेवफाई के ताने गढ़े पांव पटका, बदन मडोड़ा हर्फ़, मिसरे, माने सब टूट कर बिखर पड़े हुडदंग मचता रहा मैं हताश तकता रहा फिर किसी शातिर नट की तरह उसने कलाबाजियाँ खायी और सबकुछ समेट खुबसूरत इक शक्ल में तनकर खड़ी हो गयी इतराते हुए कहा पढ़कर बताओ कैसी हूँ अपराधबोध से सना मैं अवाक उसे तकता रहा तभी कंधे पे इक छोटी थाप दी अब तो मुझे अपनी बटन वाली डायरी के पन्नों पे उतार लो मेरी उँगलियाँ स्वतः टेबल के कलमदान वाले कोने की ओर बढ़ चली |