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Showing posts from 2018

मई दिवस पर

खाल खींच के जूता सील लें कौनो नहीं कसूर चार डंडा मार दिए पर मजूरी दिए हुज़ूर थाली चाटे पेट भरा तब भोजन यों भरपूर लिया डकार बौ बौ कर शाबाशी दिए हुज़ूर  ख़ून खींच के खेत सींच दीह फसल हुआ भरपूर बोझा ढो ढो पीठ मुड़ गयी कहीन यही दस्तूर  बीमारी में काम करे को मलहम दिए हुज़ूर काट दिए टाँग जड़ से जब घाव बना नासूर घोड़ा बने छोटे मालिक खातिर बने गधा, लंगूर हमर बच्चन बड़े हुए जब उनका का कसूर टीबी का खाँसी फूटा जब घर से किये हमे दूर   देख गरीबी आँसू फूटा मुफत का ज़हर दिए हुज़ूर 

अधूरी नज़्म

इक नज़्म जो बीते ज़माने से लैपटोप की ड्राफ़्ट फ़ोल्डर में मुकम्मल होने की चाह में दबी रही उकता कर एक दिन ज़मीन पर बिखर पड़ी रोना धोना हुआ, बेवफाई के ताने गढ़े पांव पटका, बदन मडोड़ा हर्फ़, मिसरे, माने सब टूट कर बिखर पड़े हुडदंग मचता रहा मैं हताश तकता रहा फिर किसी शातिर नट की तरह उसने कलाबाजियाँ खायी और सबकुछ समेट खुबसूरत इक शक्ल में तनकर खड़ी हो गयी इतराते हुए कहा पढ़कर बताओ कैसी हूँ अपराधबोध से सना मैं अवाक उसे तकता रहा तभी कंधे पे इक छोटी थाप दी अब तो मुझे अपनी बटन वाली डायरी के पन्नों पे उतार लो मेरी उँगलियाँ स्वतः टेबल के कलमदान वाले कोने की ओर बढ़ चली |

ग़ज़ल

कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया जो कुछ किया सरेआम किया नाम उठा तेरा महफ़िल में ताने दे सबने परेशां किया झाँका मेरे भीतर तूने जब मुझ पत्थर को इंसान किया दर्द उठा, तेरा जिक्र हुआ जब मीरे इश्क़ का क्या इनाम दिया मैं दिन भर हँसता फिरता हूँ तेरे इश्क़ ने यूँ बईमान किया जब नाम लिया तेरा सजदे में इल्जाम लगा, बदनाम किया थक कर हिज़्र की रातों से  साँसों को पूर्णविराम दिया

ग़ज़ल

हर पाप धोने को यूँ तो गंगा बहुत है  मसला यहाँ हर शख्श नंगा बहुत है कल सरेआम कसमें खायी वफादारी की सियासी दाव का उसको  तकाज़ा बहुत है मीरे इश्क़ को ना बना शिरी-फरहाद सा मुझे इश्क़ के आगे भी जीना बहुत है हर चिंगारी यहाँ बस्तियाँ जला जाती है  इस शहर में स्कूल कम, दरगाह बहुत है अँधेरे रास्तों में वो अक्सर बेबाक चलता है इश्क़ में गिरने उठने का तज़ुर्बा बहुत है बेऔलाद वो बेशुमार दौलत छोड़ गया ,  अकेली लाश, जनाज़े को कन्धा बहुत है सरहदों पे शहीद होना फ़क्र की बात है इश्क़ में कुर्बां होने का ओहदा बहुत है

इश्क़: प्रैक्टिकल वाला

अगस्त का पहला इतवार दोपहर के साढ़े तीन बजे काले घने बादलों में दिन कहीं ढक सा गया है सड़कें बारिश में वीरान सबकुछ मानो थम सा गया है घर की पोर्च पर मैं चाय की चुस्कियों के साथ अमृता प्रीतम की आत्मकथा के घूँट लगाता किताब के ४४वें पन्ने पर पहुँचता हूँ अमृता साहिर के लिए कहती हैं "तेरा मिलना ऐसा होता है जैसे कोई हथेली पर एक वक़्त की रोटी रख दे" इस मार्मिक प्रेम कथा से प्रभावित भीगती वीरान सड़कों पर बारिश में काल्पनिक फिल्म का सेट लगा देता हूँ मेरे कुशल निर्देशन में साहिर अमृता को मिलाने की कवायद शुरू होती है किसी सपने की तरह साहिर भीगते हुए धीमे क़दमों से अमृता की तरफ बढ़ते हैं एकटक उन्हें देखते हुए दोनों हाथ अपने हाथों में थामकर कुछ कहने को होंठ फड़फड़ाते हैं इक अनचाही आवाज़ से लेकिन सपना टूट जाता है बेमन से फ़ोन पर नज़रें फेरता हूँ बॉस का व्हाट्सएप्प: "कैन यू रीच ऑफिस इन हाफ ऍन ऑवर" आशिक़ मन झुंझलाता है ये वक़्त नहीं इन बेतुकी बातों का अभी इतिहास बन रहा है दो प्रेमी जो दशकों से न मिल पाए, एक होने जा रहे हैं...

स्वेटर

कल बारिश हुई अक्टूबर की पहली सर्द हवाओं की पहली झोंक में जब सिहरता देख मुझे उँगलियाँ तुम्हारी ऊन के गोलों पे तेज हो जाती थी चाय के प्यालों की खनक दूर से सुनकर तलब तुम्हारे गर्माहट की मीरे सीने में भर आती थी बादलों में टंगे सूरज की किरणें हिचकिचाते हुए नंगे ठूठ पेड़ों से गुजरकर ख़ुश्क हमारे बदन को सहला जाती थी कल फिर वही बारिश थी पतझड़ की पहली सिहरता रहा मैं तीसरे पहर रात के कुछ हरारत में ( हरारत - हल्का बुखार ) कुछ बनावटी, आँखें मूँद इंतजार में लिपट जाने को गर्म साँसों में तुम्हारे पड़े हैं गोले उलझे रिश्तों के, झाँकते बंद अलमीरों से स्वेटर जो बुन दो तुम फिर इक बार ओढ़ लूँ उसे सो जाऊँ मैं |

मैं मेरी तनख़्वाह नहीं हूँ

मैं मेरी तनख़्वाह नहीं हूँ मेरी कॉलेज की डिग्री, कद-काठी, चमड़ी का रंग नहीं मेरी गर्दन पर छिपती उभरती खुदकुशी के निशां वीसा के स्टैम्प ट्विटर हैंडल आधार के १२ अंक जात, मजहब दूर दूर नहीं जो कौतुहल हो मुझे जानने की तुम मुझे मेरी कविता मान लो उन्ही की तरह स्वछन्द हूँ मैं उनके शब्दों के बीच छुपे सैंकड़ों मतलब उन मतलबों के बीच का अंतर्द्वंद हूँ मैं छुपी होंगी उन्हीं लाइनों में खुद मेरा सारांश भी जो ढूंढ पाओगे तुम मेरी ही किसी कविता का एक छंद हूँ मैं जो मुश्ताक़ हो तुम, जानना हो मुझे तुम मुझे मेरी कहानियाँ मान लो उन्ही की तरह मनगढंत हूँ मैं कहानियों में बसे सैंकड़ो किरदार उन्हीं किरदारों का अंश हूँ मैं छुपी है काल्पनिक उन कहानियों में मेरे जीवन के किस्से जो समझ जाओगे तुम मेरी ही कहानियों का एक अंक हूँ मैं गर तुम्हें लेबल डालने की ज़िद हो तुम मुझे एक लेखक मान लो उस सनकी भीड़ का एक अंश हूँ मैं आम तौर पे मोहब्बत की लौ हूँ क्रान्ति पथ पर विध्वंस हूँ मैं हुकूमत की गिरेबां में झाकते हर शब्द मेरे जो भा...

कहानी - सल्फास

बारिश आज भी झांसा दे गयी | मंगरु अपने पौने २ कट्ठे खेत की मेढ़ पर बैठ अलसाई नज़रों से कभी अपने सूखती फसलों को देखता तो कभी उँगलियों की टोपी बना आसमाँ की तरफ | अगस्त का महीना आ चुका था लेकिन बारिश की दूर दूर तक कोई खबर नहीं | मंगरु ने नज़र घुमाई तो अखबार के फटे हुए एक टुकड़े पे गयी | बड़े साफ़ मोटे अक्षरों में लिखा था 'किसानों का 35 हज़ार करोड़ का क़र्ज़ माफ़' | मंगरु ने अखबार का टुकड़ा तह कर अपनी जेब में डाला और घर की तरफ दोपहर का खाना खाने निकल पड़ा | शाम ढले अपने पडोसी सुखीराम से उसके बेटे को दिल्ली में फ़ोन कराया | सुखीराम का बेटा दिल्ली में बैंक परीक्षा की तैयारी करता था और गांव के होशियारों में शुमार था | पता चला की क़र्ज़ माफ़ी केवल बैंक से लिए कर्ज़ों पर है | मंगरु ने तो महाजन से पैसे लिए थे, तीन टका महीने के ब्याज पर | मंगरु को अपने तंग हालत से बहार आने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था | पिछले चंद दिनों में उसने ईंट भट्टी से लेकर मनरेगा तक हर जगह काम ढूंढने की कोशिश की, मगर कहीं काम ना बना | महाजन के सूध के पैसे भी बढ़े जा रहे थे | मंगरु इन्ही स...

रास्ते बदले हैं कभी?

रास्ते बदले हैं कभी? इस डर से की तंग इक गली में चंद लोग रहते हैं जो राह गुजरते पूछ बैठते हैं हाल चाल अक्सर | वक़्त वही, अंदाज़ वही चेहरा वही, अलफ़ाज़ वही, फ़िक्र्मन्दगी की आड़ में सवालों के बाण तैयार, हर सवाल यक़्साँ फरेबी (यक़्साँ - एक जैसे) हर सवाल इक बलात्कार | कभी किसी मसले का हल होता नहीं देखा इस संवाद से ना तल्खियां मिटती मोहल्ले की ना जड़ मिटते फसाद के | मंसूबे जो समझ नहीं पाता सवालों में छुपे सवाल का नामुनासिब कुछ कह जाता हूँ मच जाता अक्सर बवाल सा | वहीं दूसरी इक गली में जो और भी संकरी है मोहल्ले के मनुवादी जिसे अछूतों की टोली बता दुत्कार देते हैं | यों तो क्रांतियों वाला ज़ज्बा नहीं, मुँह चिढ़ाने के इरादे सही उसी गली से गुजर हम भी अपने प्रतिष्ठित मोहल्ले को ललकार लेते हैं | अधमरे एक नाले के दोनों तरफ आधे कमरे, छह बसैरों वाली अनगिनत घरें बिछीं हैं बेधुले कपड़ो की गठरी सी, कुछ खाट धुप सेकते इंसानो के साथ बेसुध पड़े सड़क के नाम पर धुरमुसा रास्ता इक पत्थरी सी हिदायतें ना गुजरने की  ता...